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अब तो दूसरी शादी कर लो, उम्र पड़ी है, अकेले कैसे रहोगे?

कहानी उस शख्स की है, जो लगभग पैंतालीस की उम्र में अपनी पत्नी को खो बैठा।
लोगों ने कहा—“अब तो दूसरी शादी कर लो, उम्र पड़ी है, अकेले कैसे रहोगे?”

मगर उन्होंने एक ही बात कही—
“वो मुझे एक अमूल्य तोहफा दे गई है — मेरा बेटा। अब मेरी ज़िंदगी उसी की परछाई में कटेगी।”

वो जी-जान से बेटे की परवरिश में जुट गए।
बेटा बड़ा हुआ, कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगा।
जब व्यापार समझ गया, पिता ने अपने हाथ पीछे खींच लिए और कहा—
“अब तू संभाल, मुझे अब बस चैन चाहिए।”

फिर एक दिन, बेटे की शादी भी हो गई।
पिता ने बहू को पूरे घर की जिम्मेदारी सौंप दी।
हर काम से अपने को पीछे खींच लिया।

अब बस एक आदत रह गई थी—दोपहर में बेटे के लौटने से पहले, एक थाली खाना… और कभी-कभार कुछ साधारण-सी मांग जैसे दही या अचार।

लेकिन उस दिन…

पिता ने दही मांगा, और बहू ने साफ़ मना कर दिया—
“आज दही नहीं है।”

पिता जी ने चुपचाप खाना खत्म किया, कुछ नहीं कहा और रोज की तरह ऑफिस निकल गए।
लेकिन इस बार बेटे ने भी सब सुना…
और जब वो खुद खाने बैठा, तो उसकी थाली में एक कटोरी दही थी—जो बहू ने खुद परोसी थी।

बेटा चुप रहा… मगर दिल के भीतर कुछ हिल गया था।

कुछ दिन बाद…

बेटे ने पिता से कहा—
“पापा, कल आपको कोर्ट चलना है।”

पिता ने चौंककर पूछा—
“कोर्ट क्यों?”

बेटा मुस्कराया नहीं, बस शांत लहजे में बोला—
“कल आपकी शादी है।”

पिता अवाक़…
“क्या पागल हो गया है तू? न मुझे पत्नी चाहिए, न तुझे मां।
क्या जरूरत है इस नाटक की?”

बेटा बोला—
“बिलकुल सही कहा आपने।
मुझे मां की ज़रूरत नहीं, क्योंकि आप ही मेरी मां भी बनकर खड़े रहे।
और आपको पत्नी की ज़रूरत नहीं, क्योंकि आप अकेले ही दोनों किरदार निभा चुके।”

“तो फिर ये शादी क्यों?”
पिता ने दोबारा पूछा।

बेटे की आंखें नम हो गईं—
“पापा, ये शादी मैं आपके लिए नहीं, दही के लिए करवा रहा हूं।
क्योंकि कल से आप अकेले इस घर में रहेंगे, और मैं किराये के घर में पत्नी के साथ।
आपके ऑफिस में भी एक नौकर की तरह काम करूंगा और वेतन लूंगा।
ताकि मेरी पत्नी को ये समझ आए कि
‘दही सिर्फ दूध से नहीं, आदर और परवाह से भी जमता है।'”

एक सन्नाटा छा गया था।
पिता की आंखें छलक उठीं, बेटे ने उनके पैर छुए और चुपचाप चला गया।

सीख :–
मां-बाप अगर हमारी ज़रूरतों के ATM बन सकते हैं,
तो क्या हम उनके सम्मान का आधार कार्ड नहीं बन सकते?

अगर उन्होंने हमें बिना शिकायत के ज़िंदगी दी है,
तो क्या हम उन्हें थोड़ी सी इज़्ज़त और आदर नहीं दे सकते?

अगर ये कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे शेयर कीजिए…
क्योंकि शायद किसी और को भी याद दिलाने की ज़रूरत हो कि ‘दही न होना’ सिर्फ एक बहाना नहीं था, एक इम्तहान था।

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